इस धरती पर परमात्मा की राह पर चलने वाले दो तरह के लोग हैं। एक वे हैं, जिनकी यात्रा में छोटे-छोटे पड़ाव नहीं आते और जो एक लंबी छलांग में अपनी मंचिल तक पहुँच गए। जपुजी के पिछले चरणों में, गुरु जी द्वारा बताए गए सूत्र और विधियाँ ऐसे ही गुरुमुखों के लिए थीं। दूसरे प्रकार के जिज्ञासु जो लंबी छलांग नहीं लगा सकते या लंबी छलांग लगाने का साहस (हौंसला) नहीं करते; उनके लिए सीढ़ी के कदम (steps) चढ़ने की तरह, गुरु-पीरों, ऋषि-मुनियों ने अलग-अलग विधियां विकसित की हैं जिन्हें अपनाकर ऐसे जिज्ञासु भी परमात्मा में लीन हो गए। उनमें से यह एक विधि जपुजी में गुरु जी ने यहां दर्ज की है। इसमें उन्होंने थोड़ी सी पंक्तियों द्वारा; शब्द से निःशब्द तक जाने के ढंग को, बहुत संक्षिप्त रूप में बा-खूबी प्रस्तुत किया है।
सभी धर्मों और सब संप्रदायों में यह सूत्र बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। किसी भी धर्म या संप्रदाय में देखें; तो हर जगह अक्सर सभी लोग, इसी सूत्र को प्रयोग में लाते हुए दिखाए देंगे। यह विधि बहुत ही आसान है क्योंकि इसमें सूक्ष्म बुद्धि का प्रयोग नहीं करना पड़ता। यही कारण है कि सभी वर्गों के अधिकांश लोग अपने जीवन में, इस पद्धति को अपनाकर परमेश्वर में लीन हुए।
मंत्र जाप के इस सूत्र के अनुसार, मन और बुद्धि के द्वारा चार चरणों (Tissue Memory) से गुजरना पड़ता है। ये चरण सीढ़ी के पायदानों की तरह क्रमानुसार चढ़े जाते हैं। धार्मिक ग्रंथों में इन चार चरणों को चार बाणिओं के रूप में बताया गया है जैसे-
प्रथम चरण को " बैखरी" बाणी कहा गया है। बैखरी का अर्थ 'ब-अक्षरी' अक्षरों द्वारा जीभ से मंत्र या शब्द का उचारण। आरंभ में किसी भी मंत्र का बार-बार ज़ुबान से उच्चारण किया जाता है और मन को एकाग्र करके उसे कानों द्वारा सुना जाता है। मंत्र का ज़ुबान द्वारा उच्चारण करने के कुछ समय बाद, ध्यान मन-बुद्धि के दूसरे चरण में पहुंच जाता है। यहां पहुंच कर हल्का-सा इशारा करने मात्र से ही, गले में शब्द का जाप होना शुरू हो जाता है। जिसे 'मध्यमा' कहा गया है। इस अवस्था में पहुंचने के बाद मंत्र का जाप अक्षरों में तो जरूर होगा, पर जुबान का कोई योगदान नहीं रह जाता। बार-बार उसका अभ्यास करने से वही जाप हृदय में उतर जाता है। जिसे 'पश्यंति' (वसंती) कहा जाता है।
हृदय में जाप श्वास की गति के साथ मिलकर स्वतः चलने लगता है। अधिकांश साधक गलती से, इसी को ही अजपा जाप समझ लेते हैं। वास्तव में अक्षरों का जाप बेशक बुद्धि के किसी भी स्तर पर हो, उसको 'अजपा जापु' नहीं कहा जा सकता। गुरुबाणी में इसका उल्लेख सैंकड़ों बार किया गया है। जैसे:-
अर्थ:- जो जाप मन बुद्धि से नहीं किया जा सकता, वह जाप सृष्टि के आरंभ से भी पहले का है और युगों-युगों से सर्वत्र समाया हुआ है। अतः ऐसे शून्य निराकार परमात्मा को, इस अवस्था में भुलाया नहीं जा सकता।
इस अवस्था तक पहुँचकर, बुद्धि के विचारों को उत्पन्न करने वाले सीढ़ी के, सभी चरण समाप्त हो जाते हैं। इसके आगे चलकर 'परा बाणी’ प्रकट होती है। इसे बाणी कहना भी उचित नहीं है। यहां तक बुद्धि और इन्द्रियों की पकड़ रहती है, उस अवस्था तक ही बाणी कहा जा सकता है। परन्तु चूंकि किसी भी भाषा में इसके लिए कोई शब्द नहीं है। इसलिए इसे 'परा बाणी' ही कहा गया है। वस्तुतः जितनी भी अवस्थाएं हैं, वे सब मन की ही हैं। मन और बुद्धि की पकड़ से जब तक कर्ता भाव बना रहता है, तब तक उसे अवस्था कहा जा सकता है। जब यही सोच मन-बुद्धि के विचारों के दायरे से बाहर हो जाती है; यहाँ केवल और केवल (Aimness) (होना) मात्र ही रह जाता है, इसे 'अजपा जाप' कहा जाता है। इसी को' परा बाणी' कहा जाता है, अर्थात् मन और बुद्धि के विचारों से परे।
अजपा जाप का अर्थ है, वह अवस्था जो जाप जपने में नहीं आती और जहाँ पहुंच कर किसी भी द्वैत (अर्थात् शरीर और परमात्मा के अलग-अलग) के होने का एहसास न हो। ध्यान में प्रवेश करके ध्यान में लीन होकर; उस ध्यान का स्वरूप हो जाना, अजपा जाप कहलाता है।
जैसे प्याज के छिलके को उतारते हुए अंततः; प्याज का कोई अस्तित्व (वजूद) नहीं रह जाता। इसी प्रकार मंत्र का जाप करते हुए, Tissue Memory प्रकट हो जाती है। अंतिम चरण पर पहुंचने तक; बुद्धि की विचार स्वरूप परतें समाप्त होने के बाद, हम सूक्ष्म बुद्धि में प्रवेश कर जाते हैं। जहां पहुंच कर हम स्वयं को, विचारों से प्रथक् अनुभव करते हैं। अर्थात् उसी लिव (धुन) में एक हो जाते हैं जिसे जपुजी साहिब के आरंभ में "जपु" कहा गया है। पूरे जपुजी साहिब में इसी सिद्धांत को विभिन्न तरीकों से बार-बार दोहराया गया है। यहां कहने का यह अर्थ नहीं कि बुद्धि समाप्त हो जाती है। जब आप बुद्धि के विचारों की सभी परतों को पार कर लेते हो, तब अंत में बुद्धि का जो सबसे सूक्ष्म भाग बचता है, वही शून्य निराकार परमात्मा को अनुभव करने में सक्षम है। इसके बारे में पहले बहुत बार वर्णन किया गया है। बाणी में उसका ही अनेक प्रकार से वर्णन किया गया है।
खंडे की धार से तीख़ी और बाल से बारीक बुद्धि की सोच, जब इतनी महीन हो जाए तो उस मार्ग से परमात्मा को जाना जा सकता है।
पऊड़ी की पहली पंक्ति में भूमिका का वर्णन किया गया है। उससे आगे, ज़ुबान द्वारा जाप करने की विधि वर्णित की गई है।
अर्थ:- जब जीभ से मंत्र का उच्चारण किया जाता है तो मंत्रोंच्चारण में तत्परता (त्वरा) दोगुनी हो जाए, (अर्थात-मन के अंदर से इतनी पूर्णता से जाप किया जाए कि उसको रोम-रोम में से उच्चारित किया जाए।) ज़ुबान से मंत्र का लाखों बार जाप करने से, जो परमात्मा सारी सृष्टि में भी जाना जाता है, उसको जान सकते हो।
इसके अर्थों को समझना लगभग सभी के लिए बहुत ही कठिन था। उपर्युक्त पंक्ति में सिमरन करने की भूमिका को संक्षिप्त में वर्णित किया गया है।
अर्थ:- जो जगत का ईश्वर है, उसके लाखों नाम हैं। यदि उन नामों में से एक नाम को लाखों बार, पूरी जीवन शक्ति लगाकर उचारा जाए। इस प्रकार सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़कर, उस प्रभु के साथ एक हो सकते हैं।
इन दो पंक्तियों में पूरी विधि मुकम्मल हो जाती है। जाप करते हुए धीरे-धीरे जाप के उच्चारण से Tissue Memory Develop हो जाते है। फिर इसी जाप की बैखरी बाणी से, माध्यमा बाणी प्रकट हो जाती है। बाद में बसंती से हृदय में जाप होने लग जाता है। उसके बाद मन अक्षरों वाले जाप में से निकलकर शून्य में स्थित हो जाता है, जिसे परा बाणी कहा गया है। इन सभी अवस्थाओं को यहां 'पति पवड़ीआ' कहा गया है। अर्थात् जाप करते हुए क्रमानुसार आगे बढ़ना। इन सभी अवस्थाओं का पीछे विस्तार से वर्णन किया गया है।
*नोट :- इस विधि को जब प्रतिदिन जीवन में, लंबे समय के लिए अपनाया जाता है तो इससे सिर पर काफ़ी भार पड़ने लगता है। जिस पर सिर थका हुआ महसूस होता है। इस कारण ज़बरदस्ती नहीं करनी चाहिए। इस विधि को दिमाग को आराम देकर और सिर में तेल आदि लगाकर ही करना चाहिए।
अर्थ:- इस प्रकार आकाश (शून्य) की इन बातों (वचनों) को सुन कर; धर्म के मार्ग पर चलने वाले वो लोग, जो कि चींटी की तरह धीमे (धीरे-धीरे) चलते थे, उनके मन अंदर भी परमात्मा को मिलने की उमंग जाग उठी। अर्थातः जो लोग इस मार्ग को बहुत हल्के में लेते थे, वे जब ईश्वर में लीन लोगों को देखते या सुनते तो उनके मन में भी वैसी ही प्रवृति उत्पन्न हो जाती है।
अर्थ:- गुरु जी कहते हैं कि प्रभु की कृपा से ही उस को पाया जा सकता है। अक्सर झूठे लोग अपनी झूठी डींगें हाँकते रहते हैं।
यहाँ गुरु जी के कहने का तात्पर्य उन लोगों से है जो व्यावहारिक जीवन से रहित, केवल पढ़ सुनकर, बुद्धि के बल पर स्वयं को ज्ञानवान समझकर कथन करते हैं। इस पऊड़ी में गुरु जी ने फ़रमाया है कि अगर जीवन में तीव्रता (त्वरा) है तो उस जिज्ञासु को मंजिल बहुत करीब महसूस होती है।
"सुणि गला आकास की (Sunn Baatien Aakash Kee)" जपुजी साहिब की एक सरल व्याख्या है, जिसमे जपुजी साहिब में दी गई गुरुबाणी को आसान शब्दों में समझाने का प्रयास किया गया है। इस व्याख्या में स्वामी जी ने जपुजी साहिब की हर पंक्ति का विस्तार से अर्थ बताया है, ताकि कोई भी व्यक्ति इसे आसानी से समझ सके। इसमें दी गई शिक्षाएं आपकी आंतरिक (आत्मिक) यात्रा में मदद करती है और आपके जीवन के उद्देश्य को समझने में सहायक होती है। इस व्याख्या में गुरुबाणी की शिक्षाओं को विज्ञान(Logic) के आधार पर समझाया गया है।
जब आप इसे पढ़ते हैं, तो आप न केवल ज्ञान प्राप्त करते हैं, बल्कि परमात्मा से जुड़ने की झलक भी अनुभव करते हैं। यह एक कुंजी की तरह है, जो समझ (ध्यान) के दरवाजे को खोलती है और हमें सही जीवन जीने की दिशा दिखाती है। " सुणि गला आकास की (Sunn Baatien Aakash Kee)" सिर्फ एक व्याख्या ही नहीं है, बल्कि यह जीवन को समझने और उसका सही तात्पर्य जानने का एक मार्ग है।